नई दिल्ली : सुबह का वक़्त था गर्म कंबल में लेटे-लेटे सोच रहा था कि हमारा देश कितना तरक्की कर रहा, हमारे पास विश्व की सबसे ऊंची मूर्ती है। अच्छा लग रहा था, बहुत गर्व महसूस हो रहा था। तभी रात को किसी सज्जन के द्वारा भेजी गई एक दवाखाने की बिल की तस्वीर को देखा तो दंग रह गया। कुछ ही पल में वो मूर्ती पर गर्व करने वाला मन बैठ सा गया। आपको उस बिल के बारे में बताता चलूँ, वह उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के सरकारी अस्पताल के सामने संचालित एक निजी दवाखाने की थी। जिसपर लिखा था “दवा के बदले एक जोड़ी पायल दे कर जा रही हैं, रुपये 1240 देने पर पायल को लौटाना है”। मैं समझ ही नहीं पा रहा था की हम डिजिटल इंडिया में हैं या की हरप्पा की वस्तु विनिमय के युग में आ गए हैं। शायद किसी शायर ने ठीक ही कहा था –
“ऐ क़ाफ़िले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे
लूटा है तुम्हे रहज़न ने, रहबर के इशारे पर “
मैं भूल रहा था की याद आया हमारी सरकार नें तो “आयुष्मान भारत - प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना” की शुरुवात कर दी है। जहाँ गरीब तबके के लोगों को केंद्र की तरफ से पाँच लाख तक की स्वास्थ्य सहायता मिलनी है। प्रधानमंत्री जी ने तो इसका शिलान्यास भी कर दिया है। काफी दिन पहले सिनेमा थियेटर गया था तो वहां भी फिल्म शुरु होने के पहले मोदी जी अपनी बेतुकी और ना समझ आने वाली मुस्कान बिखेरे इसका प्रचार कर रहे थे।
मुझे लगता है शायद उस महिला को इसकी जानकारी ना हो, जो दवा के बदले अपने जेवर बेचने की परिस्थिति में आ गई थी। एक बार मान लेता हूं की सरकारी अस्पताल नें महिला को मोदी जी के कठिन प्रयास से लाई हुई योजना की जानकारी नहीं दी हो लेकिन ये बात हज़म नहीं हो रही की सरकारी दवाखाना होने के बावजूद गरीबों को बाहर से महँगी दवाईयों क्यूं मँगाई जा रही हैं। क्या सरकार का इसपर कोई रोक टोक नहीं है। होगा भी कैसे ये प्राइवेट दवाई उद्योगपति हमारे वज़ीरे आज़म के खास जो ठहरे । जब एक सरकारी संस्था (एच○ए○एल○) को पीछे करके मोदीजी राफेल डील अंबानी दादा के हाथ सौंप सकते हैं तो एक गरीब महिला को निजी दवाखानो तक जाने से आखिर सरकार क्यूं रोकेगी जहाँ फायदा उसी अंबानी-अडानी का ही हो रहा है।
बहरहाल छोडिए इस बात को ठंड है अपना ध्यान रखिए, गरीबों का क्या उनका तो हर साल ठंड से ठिठुरना लिखा है। ऐसे कितने मज़लूम हैं जो हर रोज अस्पताल,थानों,तहसीलो और अदालतों के सामने अपनी उम्मीदें गिरवी रख कर फुटपाथ पर बेफिक्र की नींद सो रहे होते हैं। सुबह या तो वे खुद उठ जाते हैं अन्यथा नगर निगम की लाश उठाने की गाडियाँ कम से कम सरकार नें तो चलवा रखी हैं। हर बार की तरह आज भी एक शेर के साथ खुद को विराम देता हूं
“चेहरा बता रहा था कि मारा है भूख ने,
सब लोग कह रहे थे कि कुछ खा के मर गया”